ख़ानक़ाहे आरिफ़िया, सैय्यद सरावां
सय्यद-सरावां प्राचीन और आधुनिक भारत का काफी पुराना कस्बा है और चौदहवीं शताब्दी ईस्वी के महान सूफी संत सय्यद मुहम्मद हक्कानी हुसैनी सब्ज़वारी के नाम पर इस कस्बे को "सय्यद सरावां" कहा जाता है। चूंकि सय्यद मुहम्मद हक्कानी साहब एक ईश्वर्य-मिशन के साथ "सय्यद सरावां" पहुंचे थे, इसलिए उन्होंने इसे केवल अपना निवास-स्थान ही नहीं बनाया, बल्कि अल्लाह के बंदों की भलाई और उनके निर्वाण के लिए सय्यद-सरावां को एक आध्यात्मिक केंद्र भी घोषित कर दिया और एक लंबे समय तक यहाँ के लोगों का शिक्षण-प्रशिक्षण करते रहे।
फिर एक समय ऐसा आया कि जब सय्यद मुहम्मद हक्कानी सब्ज़वारी द्वारा प्रकाशित शिक्षण-प्रशिक्षण और ईश्वरीय मार्गदर्शन का दीपक बुझने लगा, तो फिर उस दीपक को जलाए रखने के लिए 19-वीं शताब्दी ईस्वी में हज़रत शाह अमीर अली उर्फ शाह आरिफ़ सफ़ी मुहम्मदी एक दिव्य तरीके से प्रकट हुए और लोगों को सटीक मार्ग दिखाने के साथ-साथ उन्हें शिक्षित भी किया। लेखकों के अनुसार: 16-वर्ष की आयु में हज़रत आरिफ़ सफ़ी ने अपनी शिक्षा पूरी की। 20-वर्ष की आयु में खिलाफत से सम्मानित किए गए और "शाह आरिफ सफी" की उपाधि प्राप्त की। 22-वर्ष की आयु अर्थात 1883 में उन्होंने खानकाह की स्थापना की, जिसे अब देश और विदेश के लोगों के बीच “खानकाहे-अरिफिया” के नाम से जाना जाता है। पूरे 20 वर्षों तक उन्होंने आह्वान, उपदेश, समाज-सेवा और शिक्षण-प्रशिक्षण का कर्तव्य निभाया। हालांकि 42-वर्ष की आयु में ही उनका निधन हो गया, लेकिन इस अल्पकाल में भी आत्म-विकास, मार्गदर्शन, नैतिकता और ज्ञान की ऐसी फुलवारी लगा गए कि संपूर्ण मानव समुदाय उसकी सुगंध से आज भी महक रहा है और भविश्व में भी यूँही महकता रहेगा।
जहां तक खानकाहे-आरिफिया का, सूफी सिलसिले से जुड़ने की बात है तो इसकी एक कड़ी मशहूर सूफी सिलसिला, चिशतीय-सफविया से मिलती है। उधारण के अनुसार हज़रत आरिफ़ सफ़ी का सुफियाना सिलसिला, शाह अब्दुल ग़फूर मुहम्मदी सफवी बारा-बंकी, मखदूम शाह मुहम्मद खादिम सफ़ी मुहम्मदी सफीपुरी, मखदूम अब्दुस्समद सफीपुरी, शैख साद खैराबादी और मखदूम शाह मीना लखनवी से होता हुआ हज़रत ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया महबूबे-इलाही तक पहुंचता है।
हजरत शाह आरिफ़ सफ़ी के निधन के बाद, उनकी सज्जादगी और जानशीनी का ताज उनके बड़े बेटे हजरत शाह नियाज अहमद उर्फ शाह सफीउल्लाह के सिर पर सजाया गया। उन्होंने केवल शाह आरिफ़ सफ़ी के सूफी-मिशन को ही मजबूत नहीं किया, बल्कि खानकाहे-अरिफिया के लिए एक व्यापक निर्माण भी कराया, जिसमें मजार-ए-शरीफ और दूसरे कक्ष के साथ मस्जिद, बारा-दरी और एक लॉन शामिल है। लोगों को पानी की कोई कमी न हो इसके लिए एक कुवाँ भी खुदवाया। इस निर्माण की प्रक्रिया में अधिकांश भक्तों ने अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार भाग लिया, लेकिन विशेष-रूप से हजरत अलीमुल्लाह शाह और हाफिज नईमुल्लाह शाह ने इस निर्माण में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। हजरत शाह नियाज अहमद की जीवनी से यह ज्ञात होता है कि वह एक ही समय में समाज-सुधार, मार्गदर्शन और धरम-सेवा का कर्तव्य निभा रहे थे, खानदानी संपत्ति से संबंधित समस्याओं को हल कर रहे थे, खानकाह-निर्माण की कठिनाईयों का सामना कर रहे थे और इसी बीच ईश्वर के ध्यान और उसकी याद में भी बड़ी कुशलता के साथ लुप्त रहते थे। इसके अलावा घर-परिवार की देख-रेख, समाज-सेवा और फाका-कशी के दिनों में भी अल्लाह का शुक्र के साथ उसकी राह में खर्च करने के आदी थे और अपने भक्तों से भी यही उपेक्षा रखते थे।
बड़े बेटे के बाद 1955 में आप के छोटे बेटे हज़रत शाह रियाज़ अहमद के सिर सज्जादगी का सेहरा बंधा। यहाँ यह इसपस्ट रहे कि शाह रियाज़ अहमद मुरीद तो अपने पिता से थे, लेकिन खिलाफत अपने बड़े भाई शाह नियाज़ अहमद से प्राप्त थी। इस प्रकार उन्हों ने पिता जी और बड़े भाई के सिद्धांत को अपने लिए मार्गदर्शन बनाया और समाज-सेवा के पर्दे में अल्लाह के बंदों तक लाभ पहुँचाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। इसपस्ट रूप से कहा जाए तो शाह रियाज़ अहमद, पैगमबर के उस संदेश को अपने जीवन में रचा-बसा लिया था जिस में कहा गया है कि “संसार के समूचे लोग अल्लाह का परिवार हैं और अल्लाह के यहाँ सब से प्रिय वह इंसान है जो अल्लाह के परिवार को लाभ पहुंचाता है।’’ फिर चूंकि शाह रियाज़ अहमद की निगाहें देख रही थीं कि खानकाहे-अरिफिया के हिस्से में एक ऐसी अनमोल व्यक्ती का प्रकट होना निश्चित है जिसके द्वारा ज्ञान, शिक्षा और निर्माण के छेत्र में बड़े कारनामे होने हैं, इस लिए शाह रियाज़ अहमद ने अपनी सज्जादगी के लिए अपने ही परिवार के एक होनहार व्यक्ती का चुनाव किया जो उस समय “अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय” के फारसी विभाग में बी.ए. का छात्र था, पैदाइशी नाम शाहिद-उल-आफाक है, जबकि वर्तमान-काल में सारे लोग शैख अबू सईद शाह एहसानुल्लाह मुहम्मदी सफवी के नाम से जानते और पहचानते हैं। इस प्रकार शाह रियाज़ अहमद ने अपने भतीजे के छोटे बेटे शैख अबू सईद को एजाजत और खिलाफत देने के बाद खानकाहे-अरिफिया की सज्जादगी पूरे तौर पर सौंप दी। और फिर इस प्रकार केवल खानकाह की जिम्मेदारी ही नहीं, बल्कि वह सारी जिम्मेदारियाँ शैख अबू सईद के सिर आगईं जिन जिम्मेदारियों को आप के गूरु शाह रियाज़ अहमद निभा रहे थे। यहाँ यह भी खयाल रहे कि आप के गुरु शाह रियाज अहमद स्वयं एक महान सूफी संत थे, हमेशा ईश्वर के ध्यान में लुप्त रहते थे और ज्ञान के चोटी पर विराजमान थे। और यही सम्पूर्ण बातें वह शैख अबू सईद में भी देखना चाहते थे, चुनांचे उन्हों ने अपनी खास निगरानी में आपका प्रशिक्षण किया और ध्यान-ज्ञान के उच्च स्थान पर पहुँचा दिया। यही कारण है कि अपने गुरु के देहांत के बाद शैख अबू सईद बड़ी ही कुशलता के साथ खानकाह की देख-रेख कर रहे हैं और हर उस धार्मिक और ज्ञान-ध्यान के परंपरा को आगे बढा रहे हैं, जिसको देख कर अपने शूकराने के तौर पर ईश्वर के आगे अपना सिर झुकाते हैं और बेगाने आश्चर्यचकित हैं।
1993 से पहले के हालात का जाएजा लेने पर मालूम होता है कि खानकाहे-अरिफिया में सत-संगत और ईश्वर के ध्यान-ज्ञान में लुप्त रहने, समाज-सेवा जैसे कार्यों पर विशेष रूप से बल दिया जाता था लेकिन 1993 में जब जामिया अरिफिया के नाम से एक विद्यालय की स्थापना हुई तो मौखिक रूप से ईश्वर-ज्ञान और समाज-सुधार जैसे कार्यों के साथ यह खानकाह धार्मिक, सामाजिक और आधुनिक शिक्षा का भी केंद्र बन गया है। जहां शिक्षा के प्यासे, आत्मा की शांती चाहने वाले और ईश्वर को प्राप्त करने वाले लोग आते हैं और अपनी अपनी मुरादें पाते हैं।
खानकाहे-अरिफिया का एक महत्वपूर्ण और सराहनिए कदम यह है कि यहाँ का दरवाजा सभी धर्म, जाती और मसलक-व-मजहब के लिए खुला रहता है। जैसाकि हम सभी यह बात बखूबी जानते हैं कि हर जमाने में विश्व अस्तर पर हमारे देश की एकता-अखंता, प्यार-मुहबत और गंगा-यमुनी तहज़ीब लाजवाब रही है। चुनांचे इस संदर्भ में जब हम खानकाहे-अरिफिया की ओर देखते हैं तो यहाँ गंगा-यमुनी तहज़ीब की अनोखी मिसाल देखने को मिलती है। बल्कि अगर हम अपने व्यक्तीगत तजर्बे की बात करें तो “प्रयागराज संगम अस्नान’’ के अवसर पर यहाँ बहुत से साधू आदि आते हैं, यहाँ के पवित्र माहौल और गंगा-यमुनी तहज़ीब के दिलकश नज़ारे से लुत्फ-आंदोज़ होते हैं। और फिर अपने ह्रदय में बहुत सारी यादें लिए वापस होजाते हैं। इस्लामिक दृष्टी से बात की जाए तो इस प्रकार के हालात में पैग़ंबर मुहम्मद साहब का वो ज़माना याद आता है कि जब आप के यहाँ मस्जिदे-नबवी में कोई यहूदी-ईसाई वफद आजाता तो आप बिना किसी धार्मिक भेद-भाव के सब के साथ मनवता और मान-सम्मान का बर्ताव किया करते थे। चुनांचे खानकाह में भी इसी प्रकार से बिना किसी धार्मिक भेद-भाव के, सब के साथ बेहतर से बेहतर व्यवहार किया जाता है। लेकिन बड़े अफसोस की बात है कि कोरोना महामारी और देश-दुनिया में विचित्र हालात होने के कारण अब यह दृश्य न के बराबर देखने मैं आता है।
संस्थान की बात करें तो खानकाह की निगरानी में विभिन्य संस्थान चलते हैं:
1. शाह सफ़ी मेमोरियल ट्रस्ट: इस ट्रस्ट के तेहत खानकाह चल रही है और समाज-सेवा के साथ प्रेम-भाव के विभिन्न कार्य में लुप्त है। जैसे रोजाना लंगर का प्रबनध, हर महीने हज़रत अली की याद में महफ़िल, विभिन्न अवसरों पर ग़रीबों के बीच ग़ल्ला और ज़रूरी समान का वितरण, मेडिकल कैंप का प्रबनध और मुफ़्त इलाज की सुविधा आदी।
2. जामिया अरिफिया: जामिया अरीफिया संशोधित आधुनिक पाठ्यक्रम और नैतिक प्रशिक्षण के साथ-साथ बच्चों के शिक्षण और प्रशिक्षण में लगी हुई है, जहां अंग्रेजी, हिंदी, गणित, कंप्यूटर, विज्ञान और शारीरिक व्यायाम के साथ-साथ धार्मिक और इस्लामी अध्ययन भी कराया जाता है।
3. शाह सफ़ी एकेडमी: यह सूफीवाद और मानवता के प्रचार-प्रसार के संबंध में विभिन्न प्राचीन और आधुनिक पुस्तकें लिखने, शोध और संपादन जैसे कार्यों में लगे है। सूफीवाद की पांच सौ साल पुरानी व्यापक पुस्तक “मज्म-उस-सुलूक”, आध्यात्मिक प्रशिक्षण पर आधारित “नगमा-तूल-असरार”, वार्षिक पत्रिका “अल-एहसान”। मासिक पत्रिका “खिजरे-राह”, तकफीर और हिंसा के खिलाफ “मसल-ए-तकफीर-व-मुतकललिमीन”, “इस्लाम में मूसीकी”, “तकमिल-उल-ईमान”, “मरजल-बहरैन”, एकेडमी के महत्वपूर्ण और विशेष प्रकाशन हैं। इनके अतिरिक्त जिहाद-मुद्दे की सही व्याख्या के संदर्भ में कार्य जारी है, जिनमें जिहाद की सही व्याख्या और फतावा सूफिया (800 साल पुरानी) समेत बहुत सी किताबें शामिल हैं।
4. सेंट सारंग कॉन्वेंट स्कूल: सेंट सारंग कॉन्वेंट स्कूल खानकाह के परिसर में स्थापित उच्च स्तरीय नैतिक शिक्षा और प्रशिक्षण का एक आधुनिक संस्थान है जहां अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू, संस्कृत, और नैतिक शिक्षा का व्यापक प्रबंध है। और अल्हम्दुलिल्लाह सभी धर्मों के बच्चे यहां शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं।
5. अल-एहसान मीडिया: वर्तमान आधुनिक टेक्निकल-युग में मीडिया का महत्व और उपयोगिता को महसूस करते हुए, एक सामाजिक चैनल शुरू किया गया है, जहां से मानवता, आध्यात्मिकता और धर्म की सच्चे भावनावों को आम-तौर पर प्रसारित किया जाता है, जो शिक्षा, देश और राष्ट्र की अखंडता और आम लोगों के कल्याण के लिए अति आवश्यक है।
6. शाही परोडक्ट: शाही परोडक्ट के रूप में यहाँ एक स्वस्थ व्यापार को बढ़ावा देने का प्रयास किया जा रहा है, ताकि खानकाह और खानकाह के सरबराह की वित्तीय जरूरतें सरलता के साथ पूरी हो सकें। और अल्हम्दुलिल्लाह! खानकाह के सरबराह शैख अबू सईद अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए अपने अनुयायियों और भक्तों की जेब पर निर्भर नहीं हैं, बल्कि वह स्वंय शाही उत्पादों के माध्यम से अपने परिवार, दोस्तों, और अनुयायियों का आर्थिक समर्थन करने की पूरी-पूरी कोशिश करते हैं। वहीं दूसरी ओर रोजगार के तौर पर बड़ी संख्या में मस्जिदों के इमाम और आम-लोग भी इस संस्था से जुड़े हुए हैं। लगभग पचास उत्पादों वाली यह यूनानी दवा कंपनी खादीग्राम उद्योग के सहयोग से चल रही है।
इस प्रकार खानकाहे-अरिफिया शिक्षण-प्रशिक्षण और समाज-सेवा के साथ सम्पूर्ण मनुष्य को उचित-अनुचित और हलाल-हराम के बीच तमीज करने का मार्ग दिखाती है और कठिन से कठिन समय में भी शुभ-व्वयहार करने और अच्छे ढंग से मुश्किल कार्यों को हल करने पर जोर देता है।
गर्ज़कि शैख अबू सईद के पूर्वजों ने जिस ईश्वर्य-मिशन को पूरा करने के लिए शैख अबू सईद का चुनाव किया था और जो भरोसा उनपर जताया था, आज वह 100% सच साबित हो रहा है कि हजरते शैख इस्लाम और अध्यात्म के कारवां को बड़ी कुशलता से लगातार आगे बढ़ा रहे हैं। अर्थात चिशती, निज़ामी, मिनाई, सफ़वी और अरिफ़ी संतों के शांती-भरे संदेश और सौहार्द-व-भाईचारा को पूरी इंसानी बिरादरी तक पहुँचाने का कार्य कर रहे हैं।
डा. जहांगीर हसन
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